जनगणना के आँकड़े कहते हैं कि भारत की आबादी का आधे से ज्यादा हिस्सा रसोई पकाने के लिए लकड़ी या ठोस जैवभार (बायोमास) का उपयोग करता है| यदि हम केवल ग्रामीण आबादी पर विचार करें तो यह अनुपात ७०% तक पहुँचता है!

ऐसा होते हुए भी, हमारे देश में आम ग्रामीणों को कहीं दुकानों में एक किफायती और कार्यक्षम चूल्हा देखने या खरीदने के लिए नहीं मिलता! इस दशा के चलते अधिकतर ग्रामीण घर अपनी रसोई अल्पविकसित ३-पत्थरों के खुले चूल्हों पर बनाते है, जो एक बहुतही अक्षम और खतरनाक तरीका है।
इन ३-पत्थरों के चूल्हों के कारण न ही बहुमूल्य लकड़ी का अपव्यय होकर हमारी वनसंपदा शीघ्रता से नष्ट हो रही है, बल्कि इनसे निकलनेवाला अतिहानिकारक धूआँ हमारे देशवासियों, विशेषकर हमारी महिलाओं, के स्वास्थ्य के लिए एक भीषण समस्या बन चुका है।
एक अकार्यक्षम चूल्हा पर्यावरण के लिए एक बड़ी विनाशकारी वस्तु है और आज ऐसे लाखों चूल्हें हमारे ग्रामीण घरों के अंदरूनी वातावरण और देश के बाहरी पर्यावरण में विनाशकारी प्रदूषण फैला रहे है।
जागतिक सांख्यिकी
का कहना है कि विश्वभर में लगभग ४० लाख लोग हर साल चूल्हों से निर्मित घरेलू वायु प्रदूषण के कारण हुई बीमारियों से मारे जाते हैं। इनमें अधिकतर महिलाएँ और बच्चे होते हैं और इन ४० लाख में से ८ लाख से अधिक भारतवासी होते हैं !
यह एक राष्ट्रीय आपातकाल परिस्थिति है, जिसको तत्काल ध्यान और समाधान की आवश्यकता है।
भारत को एक ऐसे रसोई चूल्हे की आवश्यकता है, जो जलावन कि खपत को बहुत कम कर दे, जो रसोईघर से अपकारी और घातक धूआँ समाप्त कर दे , और जो एक किफायती मूल्य पर सर्वत्र देश भर में उपलब्ध हो।